:: भारतीय नववर्ष ‘उगादी’ पर पाँच कुंडलिया ::
नव रचना नव सृष्टि नव दृष्टि ज्योति उत्कर्ष।
मंगलमय हो आपको भारतीय नव वर्ष। भारतीय नव वर्ष ‘उगादी’ मंगलमय हो। हारे राष्ट्र विरोध धर्म संस्कृति की जय हो। विश्व एक परिवार बने जीवन हो उत्सव। फैले सु-समाचार जगत में नित नित नव नव।
नव उमंग उल्लास नव नव सुगंध मकरंद।
नव्य एकता मंत्र हो मिटे द्वेष दुःख द्वंद। मिटे द्वेष दुःख द्वंद संघ की सदा विजय हो। दिग्दिगंत में फिर जगजननी की जय जय हो। सब मिल करें विकास, बढ़े सबका यश वैभव। आओ मिलकर पुनः बनाएँ भारत अभिनव।
नवजागृति के गान नव नवल राग नव छंद।
समरस भारतवर्ष हो रहें सभी सानंद। रहें सभी सानंद सदा सब एक हृदय हो। अखिल विश्व में पुनः जगद्गुरु की जय जय हो। जहाँ न कोई भेद विषमता का हो अनुभव। छुआ-छूत से मुक्त बने समरस समाज नव।
नव प्रभात नव वाटिका नव भ्रमरों के गीत।
अगवानी नव वर्ष की नव विहंग – संगीत। नव विहंग – संगीत हृदय में हर्ष बढ़ाये। शांति स्नेह सौहार्द्र प्रीति सद्भाव जगाये। वसुधा उपवन बने अ-मन हो गूँजे कलरव। नयी नयी शाखाओं पर नित खिलें सु-मन नव।
नव विचार संवाद नव समता के अनुबंध।
जन-गण-मन में हो सदा प्रेमपूर्ण संबन्ध। प्रेमपूर्ण संबन्ध सभी मतभेद मिटाएं। एक सूत्र में बंधें भारती की जय गाएं। सभी परस्पर करें सदा सुख-दुःख का अनुभव। ‘देशबन्धु’ कवि लिखें नित्य कुंडलिया नव नव। – © योगी देशबन्धु –
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वो बोले “डियर हैप्पी न्यू ईयर”
मैं बोला “फिर वही न्यू ईयर की बियर” नया साल अब नही देता है मुझे मज़ा, अक्सर लगता है मुझे ये सज़ा,
वही घिसे पिटे तरीक़े..
दूरदर्शन, गुब्बारे, ग्रीटिंग कार्ड्स, केक, बियर, हुल्लड़, पार्टी… न न अब नही ये सब, मुझे तो दुःख है..
कि,
हर आता नया साल, मुझे और बूढ़ा कर देता है, मेरी ज़िन्दगी के पैबन्दी झोले में,
ग़म और भर देता है,
तुम्ही कहो.. ऐसे दमघोटू माहौल में कहाँ जाऊँ? ख़ाली पेट की सोचूँ या नया साल मनाऊं,
..पर छोड़ो भी ये तो मेरा अपना दुख है,
लाओ डियर, पिलाओ बियर, हो ही जाये अब.. हैप्पी न्यू ईयर । – करुणेश वर्मा “जिज्ञासु” –
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सुख शान्ति हो अपार, हो न रंच तकरार,
भरा हो दिलों में प्यार इस नव वर्ष में ।
कभी भी न हो विषाद, हो न कोई अवसाद,
दूर हो सभी विवाद इस नव वर्ष में ।
भावनायें हो पवित्र बन जायें शत्रु मित्र,
श्रेष्ठ हों सभी चरित्र इस नव वर्ष में ।
विश्व करे यशमान गढ़ें नित्य कीर्तिमान,
भारत बने महान इस नव वर्ष में ।।
:: कालचक्र – Kaalchakra ::
मानता हूँ आज कालचक्र विपरीत कुछ,
योग कुछ ऐसा बना, नियति के मारे हैं ।
बड़े-बड़ों को भी यहाँ दुख झेलना पड़ा है,
आजकल विपदा में अपने सितारे हैं ।
बसा उर आस सदा किंचित न हूँ निराश,
गर्व है हमें कि हम राम के सहारे हैं ।
लोक ये समग्र लगता है जैसे मझधार,
करुणानिधान प्रभु लोक के किनारे हैं ।। – अखिलेश त्रिवेदी ‘शाश्वत’ – |