Yugpurush Chanakya hindi kavitaThe Art of Happiness Life
युगपुरूष चाणक्य ( ऐतिहासिक काव्य )
Yugpurush Chanakya ( Etihasik Kavya )

:: मंगलाचरण ::

लम्बोदर, हेरम्ब, विनायक तेरी जय हो,
विघ्नहरण, मंगलवरदायक तेरी जय हो,

शब्द महोदधि-अधरधारिणी,
जय हो, अमरभवानी जय हो,

कोटि-कोटि ब्रह्माण्डविधात्री,
विधि-बिरंचि की रानी जय हो ।

जयतु धनुर्धर राम,श्याम वनमाली जय हो ।
नीलकंठ की उमा,शम्भु की काली जय हो ।

सत्य-न्यायहित रणविधान-परिपाटी जय हो,
वीरों का अभिमान-देश की माटी जय हो ।

सतत काल गतिमान,सृष्टि में होता है परिर्वतन,
काल पुरूष का यही खेल है,यही नियति का नर्तन।।१।।
ईषत्-रक्त सुकोमल किसलय,बन जाते हैं हरे-हरे,
तरूणाई पाकर तन जाते,बन जाते हैं भरे-भरे।।२।।
तुहिन-झकोरों से आहत हो,पीले होकर झड़ जाते हैं,
जन्मे जहां उसी वसुधा के,अंक-पंक में सड़ जाते हैं।।३।।
पल से कल्प,कल्प से कल तक,यही हुआ है खेल,
ध्वंस और निर्माण सृष्टि का,युगल रूप अनमेल।।४।।
नीर बरसता नदी उफनती,आ जाती है बाढ़,
सूखा पड़ता फसल सूखती,रोता है आषाढ़।।५।।
कभी हर्षमय दिन होता है, कभी अंधेरी रात,
गलते-जलते,कभी तुहिन से, कभी तपन से पात।।६।।
साक्षी है इतिहास जगत में,जब-जब अनय बढ़ा है,
धन-बल का अभिमान,मनुज के जब-जब शीश चढ़ा है।।७।
जब-जब सत्य-न्याय संसृति में,किया गया अनदेखा,
जब-जब धनबल ने समाज में,खीची अनुचित रेखा।।८।।
लोभ-स्वार्थ के वशीभूत हो,जब-जब न्याय बिका है,
मत्स्य न्याय संसृति सागर में,तब-तब अडिग टिका है।।१॰।।
पेट और प्रजनन के पीछे,जब-जब दौड़ हुई है,
मनुज हुआ दानव,मानवता तब-तब गौण हुई है।।११।।
जब-जब ज्ञान विवेक छोड़कर,राष्ट्र हुआ है अन्धा,
मानव की अस्मिता हुई,जब श्वानयुद्ध का धन्धा।।१२।।
जब-जब मानव ग्रामसिंह बन,निज शोणित चाटा है,
जिस पर बैठा वही डाल,जब-जब हमने काटा है।।१३।।
आया है भूचाल देश में,भीषण क्रान्ति हुई है,
मनुज मरा,अहि मेें जब-जब, रस्सी की भ्रान्ति हुई है।।१४।
जब-जब दो पाषाण परस्पर,बारम्बार घिसे हैं,
तब-तब कितने घुन अदोष भी,बरबस विवश पिसे हैं।।१५।।
कुरूओं के संसद में जब-जब,नग्न हुई पांचाली,
कुरूक्षेत्र में शोणित पीने,आयी तब-तब काली।।१६।।
सतत काल गतिमान,समय में परिवर्तन होता है,
रोता आता मनुज,और फिर, अन्त समय रोता है।।१७।।
आदि-अन्त रोना होता है,मात्र मध्य में हँसना,
बनकर विषय भुजंग,चाहता मनुज अन्य को डसना।।१८।।
छीनाझपटी करे मानव, मंजूषा भरता है,
खाते शूकर,किन्तु कहीं पर, रिक्त पेट जरता है।।१९।।
यहाँ विसमता दूर न होगी,और न कभी हुई है,
यहाँ न तन्तु जोड़ने वाले,केवल सूई-सूई है।।२॰।।
आसेतु-हिमाचल धरती पर,दुष्यन्त-नहुष की परम्परा,
है छिन्न-भिन्न,कर में लेकर, जयमाल खड़ी है स्वयंवरा।।२१।।
नद ब्रह्मपुत्र से सिन्धु तलक,है खड़ा स्वयंवर पाण्डाल,
जिसके भीतर है पड़ा हुआ,नर वीरों का संगम विशाल।।२२।।
है किन्तु कहां वह नर,जिसके बसती हो असनि भुजाओं में,
बन आर्य देश का स्वाभिमान,हिमवान अडिग हो पावों में।।२३।।
मुख में हो निगम ऋचा अक्षय,हाथों में खड्ग शरासन हो,
मन में हो दुष्ट-दलन इच्छा,तन में हर क्षण वीरासन हो।।२४।।
निष्पक्ष न्याय का शासन हो,हर जन हो अपने में स्वतंत्र,
फिर राजतंत्र की अभिरक्षा में,रहे सुरक्षित लोकतंत्र।।२५।।
ऐसा यदि हो सम्राट वीर,रणधीरों की परिपाटी का,
फिर बने सुसंगत मानचित्र,इस वीर भूमि के माटी का।।२६।।
ऐसे वर-सुन्दर के गर में,पहनाकर अपना विजयमाल,
आकंठमोद में सराबोर,हो सके पुनः धरती निहाल।।२७।।
इस तरह मेदिनी पतिंवरा,मन में कर रही मनन-चिन्तन,
उस ओर नियति के पर्दे में,हो रहा काल का परिवर्तन।।२८।।
प्राची में नूतन अरूणोदय,फिर नव स्वरूप में दिखना था,
सर्वज्ञकाल को धरती का,अध्याय नया फिर लिखना था।।२९।।
अद्भुत अनदेखा खेल यहाँ ,किस तरह दिखाती नियति नटी,
परिवर्तन का आरम्भ,एक दिन घटना एक विचित्र घटी।।३॰।।
गान्धार देश का न्यायालय,निष्पक्ष न्याय का मूर्तरूप,
थे जहां एक से एक,नित्य बैठे रहते विधिविद् अनूप।।३१।।
खुल गया कक्ष आ गये सभी,बैठे निज-निज आसन्दी पर,
टिक गयीं दृष्टियां सब की ही,उस राजद्रोह के बन्दी पर।।३२।।
सुकुमार कलेवर भुज विशाल,उन्नत बक्षस्थल तुंग घोण,
जिस ओर दृष्टियां गयीं वहीं,मानो केहरि ले रहा मोड़।।३३।।
मुद्रा गम्भीर विषम तेवर,दूषित मन को भयदायक थे,
तन के परिधान सरल-सस्ते,निर्धनता के परिचायक थे।।३४।।
जीवन में बीते थे उसके,अब तक के कुल पन्द्रह वसन्त,
मधुमास चल रहा सोलहवाँ,यह प्रथम मास का दुखद अन्त।।३५।।
मधुमय वसन्त की नव ऊर्जा से,छलक रही थी तरूणाई,
जैसे स्वाधीन मृगेन्द्रबाल,स्वच्छन्द ले रहा अंगड़ाई।।३६।।
दो राजपुरूष दायें-बायें,थीं पड़ी बेड़ियां पावों में,
मेखला कसे रेशम रस्से,आयस जंजीर भुजाओं में।।३७।।
पहुंचा न्यायालय के समक्ष,सविनय बतलाकर आत्मनाम,
मैं राजपुत्र,इस न्यायपीठ को, करता हूं शिरसा प्रणाम।।३८।।
गान्धार नृपति का शुभचिन्तक हूँ,मगध देश का वासी हूँ,
इस नश्वर तन से विलग जीव हूँ,निश्चय ही अविनाशी हूँ।।३९।।
परिचय नही किसी से मेरा,कहाँ मोह या किस पर कोह,
राजद्रोह का आरोपी,पर किया कहां राजा से द्रोह ?।।४॰।।
न्यायमूर्ति ने कहा-युवक तुम,विधि-विधान से अवगत हो लो,
राजपुरूष से हाथापायी-नहीं किया, क्या? अब से बोलो।।४१।।
किया अवज्ञा विधि की,निशि में दुर्गद्वार खुलवाना चाहा,
राजपुरूष को खड्ग दिखाकर,सारे नृपति-नियम को दाहा।।४२।।
राजद्रोह के आरोपी हो,तुम्हें बताओ,क्या कहना है?
कारागृह में अथवा बाहर,बोलो त्वरित,कहां रहना है ?।।४३।।
कथन किया आरम्भ युवक ने,अपने भूत निकट का,
हुआ न बासी घात अनय का,अभी घाव है टटका।।४४।।
हिमगिरि का पाद प्रदेश जहाँपिप्पली विजन है ख्यातनाम,
स्वाधीन धरा पर मातृभूमि के,विरूद गूँजते सुबह-शाम।।४५।।
धरती पर ललित ललाम,मनोरम वन्य प्रदेश मयूरों का,
छोटा जनपद स्वाधीन,जहां शासन है क्षत्रिय शूरों का।।४६।।
गणराज्य मोरियों का,जिसके दक्षिण है अतिबल मगध राज्य,
बलवैभव अपरम्पार, न जिससे,दर्प उन्हे है कभी त्याज्य।।४७।।
मोरियगण का गणमुख्य,नाम था महानाम,अतुलित योधा,
अरि की सेना थरथरा उठे,रण में जब चले बद्धगोधा।।४८।।
जब क्रूर मगध सम्राट,नन्द श्रीमहापद्म की सेनाएं,
घनघोर घटा-सी घेर चलीं,आगे-पीछे,दायें-बायें।।४९।।
पड़ गया चतुर्दिक् जनपद के,दुर्धर्ष भटों का डेरा था,
थी रही निशा कुछ शेष,रहा बाकी कुछ अभी अंधेरा था।।५॰।।

– ©गोमती प्रसाद मिश्र ‘अनिल’ –