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स्वाति नक्षत्र की एक बूँद – Swati Nakshatra Ki Ek Boond

स्वाति एक नक्षत्र के कालखण्ड का नाम है ! यह नक्षत्र दुर्लभता के लिये जाना जाता है । इसके जो कुछ प्रतीक साहित्य में रूढ़ हो गये हैं वे इसके जल के ही हैं । जैसे-

  • बड़े भाग जहाँ बरसे स्वाती ।
  • केले में स्वाति बूँद पड़े तो कपूर, सीप में पड़े तो मोती, बाँस में पड़े तो बंसलोचन, गाय के कान में पड़े तो गोलोचन , हाथी के कान में पड़े तो गजमुक्ता आदि । इनका कोई वैज्ञानिक आधार न तो है न तलाशना चाहिये !
    साहित्य में तो कदापि नहीं !

यह सारे प्रतीक मात्र दुर्लभता इंगित करते हैं और मानवमन दुर्लभता को टूटकर चाहता है । कवि इसी चाहत को किसी चातक जैसे माध्यम से परोसता है । परोसने के लिये वह शब्दों का प्रयोग करता है । प्रयोग ठीक रहा तो संप्रेषणीय हो जाता है वांछित दे देता है । जब विश्लेषण करना पड़े तो समझना चाहिये कि संप्रेषणीयता कम है । मेरी समझ में चातक स्वाति की प्रतीक्षा नहीं करता । वह स्वाति बू़ँद की प्रतीक्षा करता है ।

चातक और स्वाति का सम्बन्ध प्यास तृषा से है और चातक चन्द्र का सम्बन्ध दर्शन से नहीं कुछ पाने से है । दर्शन तो हो ही रहा है । कितना विरोधाभास है कि कवि चातक को चन्द्रमा का प्रेमी बताते नहीं थकता और उसी चन्द्रमा को चकवी से वियोग का कारण भी! और दोनो मान्यतायें कवि की रचना में चारचाँद लगाती हैं !

शब्द प्रयोग कवि कैसे करता है उसमें दखल देना आलोचक का काम और कर्तव्य है ! सोचना कवि को है कि उसके शब्द ही पाठक या श्रोता से बोलैंगे वह स्वयं अपनी कविता समझाने किसी के पास जा पायेगा न किसी को ऐसी अपेक्षा ही रहेगी ।

सूरदास जैसे कवि ने ‘ अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी कहा है ! प्यासी तो हम जैसे लोग कहते ही रहते हैं । कवि को लीक छोड़ना चाहिये लेकिन उतना ही कि वह राही ही रहे !

– © कमलापति पाण्डेय ‘कमल’ –

Swati Nakshatra Ki Boond