संशय मन में किन्तु मंत्रिवर,शेष अभी है थोड़ा,
है समग्र वाहीक देश में,तक्षशिला ही रोड़ा ।।151।। बोल रहे थे पोरस तब तक,ध्वनि उलूक की आई,
पूर्व दिशा से पड़ा पपीहा,का स्वर मधुर सुनाई ।।152।। इन्द्रदत्त उल्लसित हुए,शुभ शकुन जानकर हर्षित,
हुआ पुनः मंत्री के मन में,पुरावृत्त आकर्षित ।।153।। बाल्हीक देश के विजय हेतु,जब केकय का अभियान हुआ,
जब शीघ्र पलायी महारथों पर,शस्त्रों का आधान हुआ ।।154।। दुर्धर्ष पौरवी सेना के, शूरों ने किया कवच धारण,
उल्लसित समर-उत्कंठा से,नृप का जब सजा महावारण ।।155।। आयुधागार से निकल पड़ीं,जब साथ हजारों तलवारें,
अम्बर तक वीर जवानों की,गुंजरित हुईं जय-जयकारें ।।156।। चढ़ गये नगाड़े गजरथ पर,तूरी हय पीठों पर सवार,
हय रथ पर चढ़े मृदंग-शंख,चमकी वीरों की खड्गधार ।।157।। चाणक्य नीति – Chanakya Niti… Click hereउस समय यही था शकुन हुआ,यर्वार्थ सिद्धि-दायक था जो,
हो गया प्रमाणित निश्चय था,जय का ही परिचायक था जो ।।158।। जिस तरह सफलता मिली वहाँ,वह आज तलक है याद हमें,
हो गये विजित गान्धार-अनी के,आगे, यह अवसाद हमें ।।159।। कर रहा अहर्निश विकल,कभी सुख नींद न आती रात-रात,
इस दुखद पराजय का कारण,हो सका नही अब तलक ज्ञात ।।160।। दुर्धर्ष वाहिनी का परिभव,यह बात नही साधारण है,
गान्धार देश का तरूण तेज-अविजेय नियति ही कारण है ।।161।। सागर के गोताखोर कभी,सागर में ही रह जाते हैं,
क्या विजय-पराजय का निर्णय,हम स्वयं कभी कर पाते हैं ।।162।। है समर सदा अज्ञात अन्त,अज्ञेय सदा रण की रूझान,
बैठते ऊंट के करवट का,किसको हो पाता पूर्वज्ञान ।।163।। यह कौन जानता,कब किसके,रथ का चक्का धँस जायेगा,
फिर निरा निहत्थे महाशूर पर,प्रतिभट बाण चलायेगा ।।164।। चाणक्य के विचार – Chanakya Ke Vichar… Click here कर दिया प्रकट सारा बिचार,मंत्री ने भूपति के आगे,
जीते हैं समर कभी मारे,बीते हैं समर कभी भागे ।।165।। तमतोम-निशागम देख,सिमटती,नित्य आमलक पाती है,
अम्बर मेें थोथे जलद देख,गौरैया धूल नहाती है ।।166।। शतयोजन सुरसा-वदन देख,हनुमत भी लघु बन जाता है,
फिर वहीं लंकनी पर अमोघ,बनकर,मुष्टिक तन जाता है ।।167।। नलिका में छिपा शतघ्री के,गोलक अंगार बरसता है,
घातक प्रहार के पहले कुछ,कार्मुक भी पीछे झँसता है ।।168।। कुछ सहम-सिमट कर पीछे कुछ,जमकर करता है उरग वार,
मृगया पर अकट आक्रमण भी,छिपकर करता है मार्जार ।।169।। कर्दम में सोया मगरमच्छ,छिपकर ही करता है शिकार,
इस युद्धकला का अब तक है,बन सका न कोई प्रतीकार ।।170।। चाणक्य के अनमोल वचन – Chanakya Ke Anmol Vachan… Click here इसलिए नरेश्वर,करना है,हमको भी ऐसा ही उपाय,
विश्वास करूं क्या,नरपति की,होगी न कदाचित भिन्न राय ।।171।। अनुचित हितकारी बचन कहाँ, सुनता है कभी विवेकवान,
हो रहा न सहमत कूटिनीति से,केकय-नृप का स्वाभिमान ।।172।। धोखे से मिली हुई द्विजवर,वह विजय,कीर्ति क्या लायेगी?
बनकर तलवारों पर कलंक,जग में अपयश फैलायेगी ।।173।। हम उसी वंश के वीर कि जिसका,कोशलेन्द्र से नाता था,
दक्षिण सागर से हिमगिरि तक,जिसका यश पवन सुनाता था ।।174।। केकय की कुल कलिका,जिसका,त्रेता में हुआ स्वयंवर था,
उत्सव सुन्दरतम था जिसके, साक्षी धरती थी ,अम्बर था ।।175।। कृपया भाग – 6 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें Yugpurush Chanakya – © गोमती प्रसाद मिश्र ‘ अनिल ‘ – |