धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर ।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ।।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत ।।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई ।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई ।।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि ।।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर ।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर ।।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत ।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत ।।
जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर ।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर ।।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना ।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस ।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस ।।
बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर ।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और ।।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय ।।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई ।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई ।।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई ।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई ।।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस ।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस ।।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात ।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात ।।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत ।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ।।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद ।।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ।।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई ।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ ।।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ।।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन ।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ।।
का कशी मगर असर, ह्रदय राम बस मोरा ।
जो कशी तन तजै कबीरा, रामहि कौन निहोरा ।।