वह पतिवंरा नृप दशरथ की,बन गयी कनिष्ठा रानी थी,
हाँ-अपने कुलपुरखों के मुख से, हमने सुनी कहानी थी ।।176।। नृप नियमों के विपरीत गयी,निज सुत का राजतिलक चाहा,
इस मिस अपने प्रति,पति-प्रियतम,राजा का स्नेह-सिंधु थाहा ।।177।। इन षड़्यंत्रों का सम्बल था,दासी का दूषित परामर्श,
थी सहज स्वार्थ की कूटसाधना,किन्तु नही था नयादर्श ।।178।। अनुचित हितकारी परामर्श,बन गया अमिट पाषाणलेख,
मिट गयी उसी के पीछे लेकिन,रानी की सीमान्त-रेख ।।179।। सुन सका न इसके आगे कुछ,हो गया मुखर मंत्री वरिष्ठ,
प्रायः भक्ष्यान्नों में होती है,बलवर्धक संज्ञा गरिष्ठ ।।180।। मैं कठ जनपद के मुख्य नगर,साँकल का मूल निवासी हूँ
केकय का हित चिन्तक,वैभव से वीतराग सन्यासी हूँ ।।181।। चाणक्य नीति – Chanakya Niti… Click here मेरे मन में है बसा हुआ,कठ-परम्परा का देश प्रेम,
बस गये जहां जिस धरती पर,जुड़ गया वहीं से योगक्षेम ।।182।। सार्धम्य नहीं उपमा में है,इसलिए तर्क स्वीकार्य नही,
हो सदा राजमत ही आगे,यह मंत्री को अनिवार्य नही ।।183।। व्यापक जनहित में निजी स्वार्थ का,साम्य कभी संभाव्य नही,
विस्तीर्ण सिंधु का प्रांगण भी,समतल तो है पर धाव्य नही ।।184।। है भले चांदनी घाम सरिस,तृण भी कर पाती तात नही,
कुसुमित पलाश कानन का मुख,रक्तिम है किन्तु अलात नही ।।185।। औशनस् नीति की तौल,नही होगी अनुचित उपमानों से,
गतिमान कालस्यन्दन रूक,सकता नहीं पवन-ब्यवधानों से ।।186।। ध्यातव्य किन्तु औशनस् नीति, है विहित मात्र भूपालों तक,
करती विनाश यदि जाती है, वह जनता की चैपालों तक ।।187।। भटभोग्या रही सदा धरती,कायर पुरूषों की भोग्य नही,
आम्भी अवलिप्त-कुटिल-कायर,है सिंहासन के योग्य नही ।।188।। ऐसे शासन में जनजीवन,बन जाता है विश्वासहीन,
अस्मिता अरक्षित जनपद की,होती रहती अनुदिन मलीन ।।189।। इतिहास पुरातन साक्षी है,जब हुआ क्षीर निधि का मंथन,
था विधि-प्रपंच के सभी,गुणागुण-सिद्ध-निषिद्धों का ग्रंथन ।।190।। चाणक्य के अनमोल वचन – Chanakya Ke Anmol Vachan… Click here Click here… आध्यत्मिक अनुभव – Spiritual Experience – ©गोमती प्रसाद मिश्र ‘ अनिल ‘ – Yugpurush Chanakya |