Maa Par Kavita in Hindi

Maa Par Kavita in Hindi : माँ पर कविता हिन्दी में

तुम ऐसी क्यों हो ?
कहीं शस्य श्यामला,
कहीं ऊसर तो कहीं बंजर ।
“हमारी हर गलती को माफ़ करने वाली,
क्या तुम्हारी ममता पक्षपाती हो गई है ?
मुझे क्षमा करना माँ !
के यदि मैं कहूँ…
“तुम्हारा किसी के प्रति ‘आकर्षण’ कभी इतना नहीं बढ़ा,
कि …तुम्हे “कुन्ती”होना पड़े ।
या फिर…
तुमनें सन्तानों की नही,स्वयं की चिंता की ।
और गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांध कर,
उन्हें आँखों से तृप्त कर देने वाली ममता से वंचित रखा ।
नहीं..नहीं..कदापि नहीं,
ऐसा कुछ नहीं किया तुमनें ।
इसके विपरीत…
तुम्हे हम तो हम,
हमारी हर वस्तु हम सी ही प्यारी है,
और अपनी हर दिन कमज़ोर होती जा रही आँखों से ,
तुमने हमें ही देखने की इच्छा की ।
निःसन्देह…
एक बात तुम्हे सबसे ऊपर रखती है,
वो ये कि…!
जीवन पाने के आरंभिक नौ महीने हमारा सम्बन्ध,
तुमसे, और सिर्फ तुमसे ही रहा ।
और सोचो जरा…
कि सिर्फ इस बात से ,
तुम्हारा दरजा संसार में सबसे ऊपर हो गया !
तुम्हारे इस गहरे “स्नेह” की चकाचौंध में,
हम क्या सोचें..हम क्यों सोचें ?
कि.. तुम्हारे एक छोटे से डर के कारण,
“कर्ण” ज्येष्ठ पांडु पुत्र नहीं बन पाया ।
और..
तुम्हारे इसी स्नेह के चलते,
“राम” ने चौदह वर्ष का वनवास भोगा ।
अब,
माँ तो आखिर माँ ही है !
भरत!
किसी भी वजह से सही,
किसी भी तरह से सही,
तुमने चौदह वर्ष अयोध्या का राज तो पाया ।
और दुर्योधन..!
तुम तो अपनी लज्जा से परास्त हुए,
भले ही कृष्ण के बहकावे में आकर,
काश के…
अभिमन्यु…कोख़ में पंद्रह बीस महीने रहता,
और जान लेता, चक्रव्यूह तोड़ना भी, पिता के वचनों से,
यदि “सुभद्रा” सो गई, तो इसमे उसका क्या दोष ?
“माँ तो आखिर माँ ही है”
कुछ यक्ष प्रश्न है माँ…
जिन्हें तुम मुझे बतला ही दो..।
कि..
यद्यपि तुम भी किसी की बेटी थी..!
तथापि…
बेटी के जन्म पर तुम भी उदास क्यों हो जाती हो ?
अथवा..
बहू के घर में आते ही तुम भूल क्यों जाती हो,
कि तुम भी कभी बहू थी ।
अथवा..
बहुओ की दहेज़ हत्या में..!
तुम्हारा भी हाथ क्यों पाया जाता है ?
पर छोड़ो भी माँ,
इसमें तुम्हारा क्या दोष ?
“माँ तो आखिर माँ ही है”
अन्य सभी प्राणियों जैसी
छोटी बड़ी इच्छाओं, आकांक्षाओ, दुराग्रह, पूर्वाग्रह, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष लगाव..
इन सभी को ओढ़े..
जीती जाती है,
अपनी संतानों की ख़ातिर..
क्षमा करना माँ..!
शायद…!
हम जैसी संतानों की ख़ातिर भी ।

– ©करुणेश वर्मा “जिज्ञासु” –