युगपुरूष चाणक्य भाग 3 : Yugpurush Chanakya Part 3 कितनी ही बार विलासिनियाँ,बस गयीं नगर में ठौर-ठौर,
थे जहाँ नित्य गायन-वादन के,निशि में चलते कई दौर ।।101।। रम्भा-उर्वशी-धृताची-विभुदा,रूप यौवना-कनक किरण,
मोहक अभिधानों के मुख पर,अनमोल परागों के विकिरण ।।102।। दीपक वृक्षों की आभा में,शतगुण सौन्दर्य निखरते थे,
नूपुर की रूनझुन से मिलकर,मोहक स्वर निकर बिखरते थे ।।103।। गान्धार राज्य के बगल खड़ा था,केकय का जनपद महान,
कुल तक्षशिला में बन्दी थे,केकय सेना के सौ जवान ।।104।। जीवन्त रही केकय नरेश,पुरू के प्रताप की घोर तपिश,
जिसकी दुर्दम सेनाओं से,हो गये विजित अभिसार कपिश ।।105।। मंत्री प्रधान द्विज इन्द्रदत्त,नृप नीति कुशल था-ज्ञानी था,
वह कूटिनीति का पारंगत था,प्रखर ज्ञान-अभिमानी था ।।106।। औशनस् नीति का महाविदुष,नित नूतन दण्ड प्रणेता था,
मंत्रज्ञ-मनीषी इन्द्रदत्त,केकय नरेश का नेता था ।।107।। मन में उसके थी नित पलती,गान्धार विजय की अभिलाषा,
था पड़ा समर में अब तक उसका,कई बार उल्टा पासा ।।108।। केकय सेनापति ब्याघ्रपाद,अद्भुत था उसका सैन्य ज्ञान,
भट सिंहनाद से टक्कर थी,लोहे से लोहे की कटान ।।109।। केकय नरेश के मन में ही,रह गयी विजय की अभिलाषा,
गान्धार विजय आयुधबल से,संभाव्य नही तोला-माषा ।।110।। था नगर गिरिब्रज अति सुन्दर,केकय की सुधर राजधानी,
हो गया नष्ट-निर्मूल वही,जो आत्त बैर पुरू से ठानी ।।111।। है एक समय की बात,गिरिब्रज का वह था मंत्रणाकक्ष,
मंत्री-सेनापति दोनों ही, बैठे नरेश पुरू के समक्ष ।।112।। दो-दो सौ किष्कु चतुर्दिक् था,मंत्रणा कक्ष से दूर बना,
पाहन प्राकार विलक्षण,जिसके ऊपर लौह वितान तना ।।113।। मंत्री की बिना अनुज्ञा के,कोई न वहां आ सकता था,
मंत्रणाकक्ष के इर्द-गिर्द,भय पारावार छलकता था ।।114।। प्राकार चतुर्दिक के बाहर,पहरे पर कुशल धनुर्धर थे,
पुरू के प्रताप की प्रखर आँच,नाराच सभी के दुर्धर थे ।।115।। यदि उड़े पखेरू भी ऊपर,कर उल्लंघन मंत्रणाकक्ष,
झट निशित शरों के द्वारा वह भी,हो जाता संधानलक्ष ।।116।। आरम्भ हो गया परामर्श,नृप ने मंत्री से बात किया,
वैफल्य बताकर मंत्रशक्ति का,लुक छिपकर आघात किया ।।117।। अपमान मनस्वी को असह्य,इससे उत्तम है मृत्युसेज,
तिलमिला उठा क्षणभर को था,केकय-मंत्री का ब्रह्मतेज ।।118।। बनते हैं बज्रप्रहारों से भी,हीरक-दाने चूर्ण नही,
गान्धार विजय-इच्छा होगी,मद-अंहकार से पूर्ण नहीं ।।119।। औशनस् नीति लानी होगी,जो है निषिद्ध केवल तब तक,
देवों के गुरू बृहस्पति का,नृपनय हो नहीं विफल जबतक ।।120।। निश्चय ही फैलाना होगा,अब कूटनीति का इन्द्र जाल,
गान्धार विजय के हेतु हमें,चलनी होगी अब छद्म चाल ।।121।। औशनस् नीतिकारों का है,सिद्धान्त यही लेखा-जोखा,
अपने हित साधन के निमित्त,करना होगा निश्चय धोखा ।।122।। नरपति आम्भी का मंत्री,वररूचि भी है एक महान विदुष,
अब हमें भेजना आवश्यक है,तक्षशिला में गूढ़ पुरूष ।।123।। नाना रूपों में लुक छिपकर,सैनिक घुसपैठ करायेंगें,
कुछ गूढ़ पुरूष ऐसे होंगें,जो अन्तःपुर तक जायेंगें ।।124।। कुछ विदुषी बार नारियों को,प्रेरित करना होगा तदर्थ,
शासन के शीर्ष व्यक्तियों को,जो वश करने में हों समर्थ ।।125।। कृपया भाग – 4 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें – © गोमती प्रसाद मिश्र ‘ अनिल ‘ – |