युगपुरूष चाणक्य भाग – 2 : Yugpurush Chanakya Part – 2

युगपुरूष चाणक्य भाग – 2 : Yugpurush Chanakya Part – 2

Yugpurush Chanakya hindi kavitaआनंदमय जीवन की कला
युगपुरूष चाणक्य : Yugpurush Chanakya
मच गया अचानक कोलाहल,जग गये सभी सोते-सोते,
उठ गये साथ माताओं के,छोटे बच्चे रोते-रोते।।51।।
गणमुख्य जग गये,त्वरित हुई,कुल मुख्यों की आहूत सभा,
सोया पौरूष तिलमिला उठा,ज्यों चमक उठी हो स्वयंप्रभा।।52।।
बोलेंगें कभी विनत होकर, अरिबल के आगे दीन नही,
होंगे अभिमानी शासन के,मोरियगण कभी अधीन नही।।53।।
स्वाधीन हिमालय देख रहा है,सदियों से स्वाधीन हमें,
प्रतिकूल न भायेंगी बातें,कोई भी अर्वाचीन हमें।।54।।
शिशुनागों का साम्राज्य,हमें इनसे है क्या लेना-देना,
मोरियगण को है ज्ञात,स्वयं ही,नौकायें अपनी खेना।।55।।
कर रहा प्रतीक्षा उधर खड़ा,मागध सम्राट अजेय वीर,
हो रहे इधर पैने फिर से,मोरिय युवकों के विषम तीर।।56।।
गणमुख्य स्वयं सेनाधीश्वर,चल पड़े अनी के आगे जो,
अब तो कृतान्त से वही बचे,इस समर भूमि से भागे जो।।57।।
बज गयी दुन्दुभी मागध की,हो रहे इधर भी शंखनाद,
छिड़ गये कड़े कटु शब्दों में,दोनो ही दलबल के विवाद।।58।।
आटविक सूरमा झपट पड़े,दुर्धर्ष मागधी सेना पर,
जलमग्न-गाँव घर के भूखे बच्चे, जिस तरह चबेना पर।।59।।
उड़ते हैं कभी कहाँ पर्वत,खर-चक्रवात के झोंकों से,
हो सके कभी पाताल भिन्न क्या,कभी सूई की नोकों से।।60।।
मागध की अनी अपार,कुचलती चली घाट-औघट-जनपद,
शोणित की घनी फुहार चली,अवशेष रह गया किसका मद?।।61।।
जो दशा महिष की है सम्भव,गिरिवर से शौर्य दिखाने में,
जो दशा दसन की है सम्भव,लोहे के चने चबाने में।।62।।
दुस्साहस की जो गति होगी,विषधर को शीश चढ़ाने में,
जो तूलघराधर की होगी,हुतभुक् से बैर बढ़ाने में।।63।।
काली भी कांप उठी क्षण भर,वह दृश्य देख रणताण्डव का,
मोरिय-मागध का युद्ध हुआ,जैसे रण कौरव-पाण्डव का।।64।
विध्वंस हुआ मोरिय जनपद,हो गया शून्य पिप्पली गहन,
निश्शेष हो गयी तरूणाई,अबलाओं की रह गयी रहन।।65।।
आबालवृद्ध नारी समाज,बाकी था दीप जलाने को,
जननी के गोदी के बच्चे,रह गये खेलने-खाने को।।66।।
मच गया चतुर्दिक् आर्तनाद,वीरों की खेदा-खेदी पर,
सब कुछ चढ़ गया मोरियों का,आत्माभिमान की बेदी पर।।67।।
माता थी मुरा राजमहिषी,मैं उसके साथ गया बांधा,
अब मागध के अन्तःपुर में,भर रहा पेट आधा-आधा।।68।।
माता का दासी रूप देख कर,विव मौन रह जाता हूं,
मैं महापद्म के अन्तःपुर में,दासी पुत्र कहाता हूं।।69।।
मैं महानाम का तनुज कि जो,थे विकट सूरमा समरढीठ,
सर्वस्व दिया रणचण्डी को,पर नही दिखाया कभी पीठ।।70।।
गणमुख्य महासेनानी से,पड़ गया काल का पाला था,
घातक जो हुआ पिता श्री को,वह महापद्म का माला था।।71।।
आदित्यवंश की कुल नारी,अब बृषलराज की दासी है,
निर्मल कर रही वसन-वासन,मन में यह विकट उदासी है।।72।।
मेरे श्रुतिरंध्रों में अब भी,बज रहा युद्ध का बाजा है,
बीते दस सम्वत् पर मन में,वह दृश्य आज भी ताजा है।।73।।
अपने कुल का अपमान देख,अन्तस् में आग उबलती है,
प्रतिशोध-अनल की चिनगारी,रह-रह शरीर में जलती है।।74।।
रनिवास-निरीक्षक,रक्षक,नीति विशारद वीर बिराधगुप्त,
जिनका है विमल विवेक नहीं, है करूणाभाव अब भी विलुप्त।।75।।
जिनके अनुकम्पा-इंगित पर,लुक छिपकर स्वयं निकल पाया,
धनदत्त श्रेष्ठि के सार्थ-साथ,मैं कल ही तक्षशिला आया।।76।।
सम्पूर्ण कला-विद्याओं का,अध्ययन केन्द्र है तक्षशिला,
कानो से सुना,न देखा था,दर्शन को आज समक्ष मिला।।77।।
उर में आगम की तृष्णा थी,शस्त्रों की ललक भुजाओं में,
थी रही बैठने की इच्छा,गुरू पद पंकज की छांॅवों में।।78।।
आचार्य विलक्षण विष्णुगुप्त हैं,विदुष यहां के बहु चर्चित,
जिज्ञासा शान्ति हेतु सोचा,अब करूँ उन्ही का पद अर्चित।।79।।
मन में उत्कट अभिलाषा थी,उर में था निश्छल अभिप्राय,
श्री मन्त,आपका जो भी हो,विधि-नियम वही कीजिए न्याय।।80।।
गुरूदर्शन की आतुरता मन में थी,मेरा था यही दोष,
केवल कपाट-उद्घाटन में,की आरक्षी ने प्रकट रोष।।81।।
द्वारपाल ने कहा-द्वार का,मै ही हूं उद्घाटक,
किन्तु निशा के तमस्तोम में,नही खुलेगा फाटक।।82।।
द्वारपाल का मर्म न समझा,नही दूर तक सोचा,
मेरे मन के निजी स्वार्थ ने,मेरा भाल खरोंचा।।83।।
आरक्षी उत्तप्त हुआ,मैंने भी खड्ग उठाया,
शेष पहरूओं का दल आकर,मुझसे रार मचाया।।84।।
मैं भी तो क्षत्रिय कुमार था,नहीं झुकाया माथ,
अपना दोष बिना देखे ही,कर ली दो-दो हाथ।।85।।
करता हूँ स्वीकार दोष अपना मैं,न्याय विधान,
जो भी समुचित विधिसम्मत हो,वह करिए श्रीमान।।86।।
निर्भीक युवक की बातों में,दिख रही प्रकट सच्चाई थी,
अब नीर-क्षीर निर्धारण में, रह गयी कहां कठिनाई थी।।87।।
कर दिया युवक को मुक्त,विवेकी न्यायाधीश विधिज्ञ ज्येष्ठ,
निर्णय से परम प्रसन्न हुए,मंत्री वररूचि आचार्य श्रेष्ठ।।88।।
वररूचि शास्त्रज्ञ-विधिज्ञ श्रेष्ठ,नीतिज्ञ कुशल मंत्री प्रधान,
नृप के हित हेतु समर्पित था,जिनका तनमनधन-स्वाभिमान।।89।।
पत्नी सुभगा पतिपरायणा,सुत सोमश्रवा अपत्य ज्येष्ठ,
जो तक्षशिला के गुरूकुल में,था द्विजपुत्रों में सर्वश्रेष्ठ।।90।।
ईष्र्या-मात्सर्य-विवाद-बैर,आम्भी सब कुछ की झांकी था,
पा लिया पिता से राज्य राज्य-अभिषेक अभी तक बाकी था।।91।।
गान्धार नृपति आम्भी निश्चय,था अंहकार का अग्रदूत,
मंत्री वररूचि मंत्रज्ञश्रेष्ठ थे,राजभक्त थे तपःपूत।।92।।
बलवान चमूपति सिंहनाद,दुर्धर्ष वीर सेनानी था,
नृप आम्भी का विश्वास पात्र,गान्धार देश का पानी था।।93।।
इस तरह मंत्र-बल अभिरक्षा में,हुआ विजित गान्धार नही,
आ सका अतुलबल-महापद्म भी,कालिन्दी के पार नही।।94।।
था प्रमुख महाव्यापार केन्द्र,पश्चिम भारत में तक्षशिला,
जैसे पश्चिम की सीमा पर,भारत के लिए अभेद्य किला।।95।।
धन-धान्य-रत्न-माणिक्य-स्वर्ण,मुद्राओं से परिपूर्ण नगर,
भक्ष्यान्न-भोज्य-अवलेह-पेय,संचय संपन्न सदा घर-घर।।96।।
कठ-केकय-कोशल-अंग-बंग,काशी-कलिंग के कलाकार,
अन्यान्य जनपदों से आकर,बसते श्रमजीवी कर्मकार।।97।।
आते नट-नर्तक,बाजीगर,कुछ धन-अर्जन के स्वार्थ हेतु,
कुछ जटिल तपस्वी साधू भी,आते लेकर परमार्थ केतु।।98।।
नित खेल तमाशों में कितने,युवकों के दिन होते व्यतीत,
कितनी अनजानी बालाएं,धन हेतु सुनातीं प्रणयगीत।।99।।
कुछ युवक लिये संग सारंगी,नित अलख जगाते गली-गली,
कोई न सोचता सत्य,कौन सच्चा अथवा मगमार छली।।100।।

– © गोमती प्रसाद मिश्र ‘ अनिल ‘ –

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