Kabir Das Ke Dohe Hindi Me ArthThe Art of Happiness Life

कबीर दास के दोहे हिंदी में : Kabir Das Ke Dohe in Hindi

कबीर दास ( Kabir Das ) जी भक्ति काल ( Devotional period ) ( रामाश्रयी ) के ज्ञानाश्रयी शाखा और निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवि थे ।
कबीर दास जी ने एक आदर्श जीवन ( Ideal life ) जिया और उस समय अज्ञान – अन्धविश्वास ( Ignorance – Superstition ) के अंधकार में रहने वाले लोगों के लिए ज्ञान का उजाला ( Light of knowledge ) फैलाया । उन्होंने अपनी दोहा के माध्यम से संसार के लोगो को जागृत किया ( World’s people awakened) । उनके दवारा कही गयी बाते आज ( Today) भी लोगों का दिशा निर्देशन ( Direction ) करती है ।
कुछ महत्व पूर्ण दोहे निम्न लिखित हैं –

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय ॥

हिंदी में अर्थ : –
कबीर दास जी कहते हैं ( Kabir Das Ji says ) कि सभी लोग दुःख में भगवान् जी को याद करते हैं, लेकिन जब लोग सुख में होते हैं अर्थात सुखी जीवन ( Happy Life ) बिताते है तक भगवन को याद नहीं करते । अगर सुख में भगवान् को याद करे तो दुःख आये ही क्यों?

बूढ़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल ।
हरि का सिमरन छोड़ि के, घर ले आया माल ।।
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू ना भूखा जाय ।।
काल्ह कारन सो आज कर, आज कारन सो कब्ब ।
पल में परलय होयेगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
बडा हुआ तो क्या हुआ , जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही , फल लागे अति दूर ॥
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
जो तोको काँटा बुवै , ताहि बोव तू फूल ।
तोहि फूल को फूल है , वाको है तिरसुल ॥
उठा बगुला प्रेम का , तिनका चढ़ा अकास ।
तिनका तिनके से मिला , तिन का तिन के पास ॥
सात समंदर की मसि करौं , लेखनि सब बनराइ ।
धरती सब कागद करौं , हरि गुण लिखा न जाइ ॥
साधू गाँठ न बाँधई , उदर समाता लेय ।
आगे पाछे हरी खड़े , जब माँगे तब देय ॥

Kabir Das Ji Ke Dohe in Hindi

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ॥
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ॥
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह ।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ।।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ।।
इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति ।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति ।।

Kabir Das Ji Ke Dohe

धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर ।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ।।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत ।।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई ।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई ।।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि ।।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर ।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर ।।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत ।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत ।।
जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर ।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर ।।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना ।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस ।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस ।।
बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर ।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और ।।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय ।।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई ।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई ।।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई ।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई ।।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस ।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस ।।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात ।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात ।।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत ।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ।।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद ।।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ।।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई ।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ ।।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ।।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन ।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ।।
का कशी मगर असर, ह्रदय राम बस मोरा ।
जो कशी तन तजै कबीरा, रामहि कौन निहोरा ।।
Kabir Das Ji Ke Dohe

– Anmol Gyan India –