Surdas Ki Kavita in Hindi : सूरदास की रचनाएँ
सूरदास जी हिंदी कृष्णा भक्त शाखा के प्रमुख कवि कहे जाते हैं ये श्री वल्लभाचार्य जी के आठ शिष्यों ( The disciples )में से एक थे । इन्होने ब्रजभाषा में अपने साहित्य की रचना ( The composition of your literature ) की है । उनके पदों में वात्सल्य, श्रृंगार एवम शांत रस के भाव मिलते हैं सूरदास जी के पाँच ग्रन्थ प्रमुख माने जाते हैं ( The five books are considered prominent ) – : 1 : : 2 :
ऊधौ मन न भए दस-बीस । एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस ॥ इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस । आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस ॥ तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस । सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस ॥ : 3 :
हमको सपने हूं में सोच । जा दिन तें बिछुरे नंद-नंदन ता दिन तें यह पोच ।। मनौ गोपाल आये मेरे घर हँस करि भुजा गही । कहा कहौं बैरिन भइ निदियां निमिष न और रही ।। ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि के आनंदी पिय जानि । सूर पवन मिल निठुर विधाता चपल कियो जल आनि ।। : 4 :
बिछुरत ब्रजराज आजु, इन नैननि की परतति गई । अडि न गए हरि संग तबहिं तैं, ह्वेन गए सखि स्याम मई ।। रूप रसिक लालची कहावत, सो करनी कछुवै न भई ।। सांचे क्रूर कुटिल ये लोचन, वृथामीन छवि छीन लई ।। अब काहें जलमोचन, सोचत, सभौ गए तैं सूल नई । सूरदास याही तैं जड़ भए, पलकनि हूं हठी दगा दई ।। : 5 :
बार-बार तू जानि ह्यां आवै । मैं कहा करौ, सुतहिं नहिं बरजति, घर तें मोहि बुलावै ।। मोंसो कहत तोहिं बिनु देखे, रहत न मेरौ प्रान । छोह लगति मोकौं सुनि बानी, महरि तिहारी आन ।। मुंह पावति तबही लौं आवति, और लावति मोहिं । सूर समुझि जसुमति उर लाई, हंसति कहत हौ तोहि ।। : 6 :
झहरात, झहरात दावानल आयौ । घेरि चहुं ओर करि सोर अंदोर बन, धरनि आकास चहुं पास छायौ ।। बरत बन बांस, थरहरत कुस कांस, जरि उड़त है भांस, अति प्रबल धायौ ।। झपटि झपटतिलपट फूल-फल चट—चंटकि फटत लटलटकि द्रुम-दल नवयौ ।। : 7 :
सदा बसंत रहत जहं बास। सदा हर्ष जहं नहीं उदास ।। कोकिल कीर सदा तंह रोर। सदा रूप मन्मथ चित चोर ।। विविध सुमन बन फूले डार। उन्मत मधुकर भ्रमत अपार ।। : 8 :
चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात । नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात ॥ कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ । कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ ॥ कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम । हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम ॥ कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि । कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि ॥ सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार । जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार ॥ : 9 :
खंजन नैन रुप मदमाते । अतिशय चारु चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते ।। चलि – चलि जात निकट स्रवनन के, उलट-पुलट ताटंक फँदाते । “सूरदास’ अंजन गुन अटके, नतरु अबहिं उड़ जाते ।। : 10 :
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ । मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ? कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात । पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात ? गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात । चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात । तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै । मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै । : 11 :
हरि संग खेलति हैं सब फाग । इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग ।। सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन । बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन ।। डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग । : 12 :
ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै । सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै ॥ कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं । भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं ॥ निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे । पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे ॥ लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले । पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले ॥ : 13 :
कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज । महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज ॥ माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज । देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज ॥ कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज । दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ्यौ जहाज ॥ लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज । नई न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा गरीब निवाज ॥ : 14 :
है हरि नाम कौ आधार । और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार ॥ नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार । सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार ॥ दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार । सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार ॥ : 15 :
कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात । अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात ॥ कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात । कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात ॥ कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सूर हरि की निरखि सोभा निमिस तजत न मात ॥ – Anmol Gyan India – |
