| Ghazal ka Sagar : ग़ज़ल का सागर Ghazal – 1इश्क हिंडोलें हुस्न जवानी खिसकी जाय सिमटती जाये। जैसे सहबा पैमाने में ढलती जाय छलकती जाये ॥ बूटा बूटा पत्ता पत्ता जाने है दस्तूरे चमन । देखो तो अंदाज कली का खिलती जाय महकती जाये॥ होता कोई तपकर कुंदन कोई धुवाँ धुवाँ हो जाता। होकर धुवाँ धुवाँ भी शबनम उड़ती जाय चमकती जाये॥ अश्क अफ़सानी होती हो तो हो जाती ख़ामोश जुबाँ। आह नहीं सावन की बदली झरती जाय गरजती जाये॥ इश्क जवानी हुश्न की तिकड़ी रुई सरीखे इस दिल में। ऐसी आग लगा बैठी जो बुझती जाय दहकती जाये॥ सागर की हर एक लहर का हस्र ‘कँवल’ यह होता है। हाँफहाँफ कर पँहुच किनारे मिलती जाय बिछड़ती जाये॥ Ghazal – 2राहेहक़ में जो लड़कर मरा है। बारहाँ फिर से जिन्दा हुआ है॥ मर्तबा सब शहीदों का एकसाँ। कोई छोटा न कोई बड़ा है॥ ‘मौत हूँ मैं नयी जिन्दगी भी’। इब्नेमरियम ने ऐसा कहा है ॥ शेख़ जी दिख रहे पारसा से। छू गयी मैकदे की हवा है॥ दे सके न कोई वो भी मरहम । जख़्म अबतक हरे का हरा है॥ मौत के बाद तुम देख लेना । नाम का तेरे क्या कुछ बचा है॥ न तो कश्ती बड़ी है न तूफ़ाँ। साहिलों से बड़ा नाख़ुदा है॥ वो है कैदी या मेहमाँ ‘क़वल’ का। सिर्फ़ भँवरे को ही यह पता है ॥ Ghazal -3कोई शिकवा न कोई गिला है । सब हमारी वफ़ा का सिला है ॥ हम से बिछड़ा ही कोई नहीं तो । क्या बताऊँ कि कब से मिला है॥ मेरी आहों का है अब असर कुछ । ये लगे है कि परदा हिला है॥ जब से नज़रें मिलीं साकिया से । शेख जी का भी चेहरा ख़िला है॥ सब की राहें जुदा सब की मंजिल । अब कहाँ कारवाँ काफ़िला है ॥ रो रहा क्यों ‘कँवल’ दिल गँवाकर । क्यों समझता था ईमाँ क़िला है ॥ Ghazal – 4अश्क जब आह होकर ढले हैं । बर्फ़ पिघली है पत्थर गले हैं ॥ हैं वो मासूम उनको पता क्या। दाँव क्या मोहतरम ने चले हैं॥ दर्द सारे जहाँ का है दिल में। हम तो पैदायशी दिलजले हैं॥ हो मुबारक उन्हें उनकी महफ़िल। मैकदे में यहाँ हम भले हैं॥ नर्म राहों पे चलना सम्हलकर। जानलेवा छुपे दलदले हैं ॥ उनसे पूछो कि क्या है ग़रीबी। जो ‘कँवल’ मुफ़लिसी में पले हैं॥ Ghazal – 5परिन्दे आसमाँ में आसियाना चाहते हैं क्या? जमीं को छोड़कर कोई ठिकाना चाहते हैं क्या? हमारा दिल तो उनके दिल का मेहमाँ हो गया कब का। मुझे ख़ाबों में अब अपने बसाना चाहते हैं क्या? तराना दिल से निकला था जो उनके नाम का पहला। नहीं गाया अकेले साथ गाना चाहते हैं क्या ? फ़ना होने की हसरत में धड़कता है तड़पता है। दिखा दूँ चीरकर सीना निशाना चाहते हैं क्या? बुलावा शेख़ ने भेजा है मैख़ाने को मस्जिद का। कोई सहबा पुरानी आजमाना चाहते हैं क्या? जमाने से कँवल का इश्क है सूरज की किरनों से। हकीकत है मगर भौंरे फ़साना चाहते हैं क्या ? – © कमला पति पाण्डेय ‘कमल’ – | 
