कुछ खेल-तमाशे वालों के, रूपों में सैनिक जायेंगें,
अवसर आने पर वही लोग,खुलकर हथियार बजायेंगें ।।126।। बस इसी भांति सेनिये राजन्! बिगड़ा हर विषय शुद्ध होगा,
अब इन्द्रदत्त का वररूचि से,निर्णायक मंत्रयुद्ध होगा ।।127।। सेना सीमा की रक्षक है,सेना राज्यों का स्वाभिमान,
था किया राज्य की रक्षा में,सुरपति ने सेना का विधान ।।128।। अवसर ही कभी भागता है,पर नही भागती है सेना,
जब सकल तंत्र सो जाता है,उस समय जागती है सेना ।।129।। हो अग्निकाण्ड या जलप्लावन,रक्षक बन आती है सेना,
आपात काल में भी अपना,दायित्व निभाती है सेना ।।130।। जब राजनीति के मठाधीश,धन लिप्सा तक रह जाते हैं,
जनसेवक,अधिकारी बन कर,जब वैभव में बह जाते हैं ।।131।। चाणक्य नीति – Chanakya Niti… Click hereअपनी ही बोयी आग बुझा,गौरव पाते जब राजपुरूष,
जब ऋषियों के कन्धे चढ़कर,चलता घमंड का भूप नहुष ।।132।। जब चषक चढ़ाकर मदिरा के,शासक करता है प्रणय खेल,
बहुमूल्य सुमनशय्या पर होती,गणिकाओं की ठेल पेल ।।133।। वैभव-विलास की आंधी में,बह जाता जब नृप का विवेक,
जब-जब शासन में रह जाता है,निजी स्वार्थ ही अडिगटेक ।।134।। जनमन में स्वयं निकल जाता,जब मातृभूमि का स्वाभिमान,
आसव के सघन कुहासों में,होते जब शासक के बिहान ।।135।। आन्तरिक कीट लग जाने से, जनपद दुर्बल हो जाता है,
फिर घातक युद्ध प्रतीक्षा में,अरि बल भी मोद मनाता है ।।136।। इस समय महा जनपद को भी,छोटा भी सकता है लताड़,
इस विषम काल में अनुशासित,सेना बनती दुर्भेद्य बाड़ ।।137।। अरि के छिद्रों को लक्ष्य बनाकर,प्रतिबल जब करता प्रहार,
इस विकट में जनपद का,सेना होती केवल अधार ।।138।। हो अनुशासनहीन सैन्य बल, लेता जब खर्राटे,
होते सफल तभी तक अरि के,जूडो और कराटे ।।139।। जब तक है गान्धार-अनिश्वर,सिंहनाद सेनानी,
समझो तब तक अभिरक्षित है,तक्षशिला का पानी ।।140।। चाणक्य के अनमोल वचन – Chanakya Ke Anmol Vachan… Click hereजब तक राजभक्ति वररूचि की,होती नही विखण्डित,
तब तक है गान्धारभूप,अविजेय शक्ति से मण्डित ।।141।। जब तक है सन्ताप सूर्य में,और चन्द्र में राका,
जब तक होगा तक्षशिला का,कोई बाल न बांका ।।142।। मंत्री के कटुवाद सुन गये,केकयश भी सादर,
हितकारी था परामर्श,भुपति ने किया समादर ।।143।। पुरू ने कहा-मंत्रियों के हैं,इन्द्रदत्त आदर्श,
हर्षित होकर त्वरित किया,द्विजवर का का पादस्पर्श ।।144।। भय-अभिभूत-प्रियंवद मंत्री,अपनी छवि खोता है,
अनुचित परामर्श को पाकर,राज्य नष्ट होता है ।।145।। शुभ लक्षण है,अभी सूर्य को,ऊपर ही चढ़ना है,
दृढ़ विश्वास हुआ,केकय को,अभी और बढ़ना है ।।146।। हिन्दूकुश पर्वत से आगे,कपिशदेश अपनाया,
फिर दक्षिण-पश्चिम में बढ़ कर,आर्यध्वजा फहराया ।।147।। केकय के दक्षिण सरिता है,उत्तर हिमगिरि सीमा,
किन्तु विजय अभियान हमारा,हुआ न अब तक धीमा ।।148।। रणस्यन्दन गतिमान,शेष है अभी दूर तक जाना,
मन में है अवशेष मंत्रिवर,चक्रवर्तिपद पाना ।।149।। केकय-रणचण्डी के आगे,शक्ति कौन ठहरेगी,
कालिन्दी के पश्चिम तट पर,आर्यध्वजा फहरेगी ।।150।। कृपया भाग – 5 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
|